श्रीमदभगदगीता का अध्याय दो योग कर्मसु कौशलम , कर्मयोग निष्काम विस्तृत व्याख्या

महाभारत में नीति, ब्रह्य और आत्मा विषयक सूत्र सर्वत्र बिखरे पड़े है। श्रीमदभगवदगीता उन्हीं का सञ्चित रूप है। श्री कृष्ण के उपदेश महाभारत के विभिन्न पर्वो में पाये जाते हैं

जिनका संकलन गीता है। श्रीमद्भगवदगीता में कर्म भक्ति और ज्ञान का प्रतिपादन हुआ है। गीता कर्म भक्ति ज्ञान की त्रिवेणी का पावन संगम है, तीर्थराज प्रयाग है। किन्तु गीता का मुख्य प्रतिपाद्य कर्मयोग ही है।

श्रीमदभगदगीता का अध्याय दो योग कर्मसु कौशलम

गीता में भगवान श्री कृष्ण ने कर्म का उपदेश उस समय दिया । है जब अर्जुन का रथ दोनों सेनाओ के बीच में आता है। अर्जुन अपने सगे सम्बन्धियों को देखकर मोहित हो जाते है। युध्द न करनें की इच्छा से अस्त्रशस्त्र रख देते है और भगवान श्री कृष्ण से स्पष्ट कहते हैं कि- यदि मेरे शत्रु मेरा वध करना चाहें  तो भले कर दें किन्तु मैं उन पर प्रहार नहीं करूँगा ।

उनका वध नहीं करूँगा । अर्जुन की यह अतिदयनीय स्थिति देखकर भगवान श्री कृष्ण उसे कर्मरूपी महामन्त्र का उपदेश देते है। वे कहतें हैं कि मनुष्य को अपना कर्म करना चाहिए । कभी कर्मों के फलो की आशा नहीं करनी चाहिए।

ये कर्म बन्धन में डालने वाले होते है ऐसा सोचकर कर्मत्याग में आसक्ति नहीं होना चाहिए।
  ‘‘कर्मण्येवाधिवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन
   मा कर्मफल हेतुर्भर्मा ते संगनेस्त्वकर्मणि ’’
भगवान  श्री कृष्ण कहते हैं कि अर्जुन कर्म न करनें  से पाप लगता है और नरक की प्राप्ति होती है। अतः मोक्षाभिलाषी को कर्म त्याग श्रेयस्कर नहीं है। इस प्रकार कर्म फलों की बिना इच्छा के केवल श्रध्दा या ईश्वर प्रसन्नता के लिए आदरपूर्वक कर्म करनें से ही मोक्ष प्राप्त होता है।

श्रीमदभगदगीता के अनुसार कर्मयोग

जन्मदि दुःखों को पूर्णतः निष्ठा करने के लिए श्रीकृष्ण कर्म का उपदेश देते है। वे कहते हैं फलों के प्रति आसक्ति छोड़कर ब्रह्ययोग में स्थिति होकर सिध्दि असिध्दि दोनों समान रहकर कर्म करना ही समता योग है।
       ‘‘योगस्थः कुरू कर्मणि सगं त्यक्त्वा धनञ्जय
        सिध्दयसिध्दयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्चयते’’

भगवान श्री कृष्ण कहते है कि हे अर्जुन ज्ञानयोग की अपेक्षा कर्मयोग दूर एवं निकृष्ट है, इसलिए बुध्दि (ज्ञान ) की शरण खोजो, कर्मफल की इच्छा करने वाले मनुष्य अधम एवं नीच है।

श्रीमदभवगत गीता के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण के उपदेश

Bhagwat Geeta ke Updesh
श्रीमद्भगवद्गीता का अध्याय दो

भगवान श्री कृष्ण कहते है- ‘समत्व बुध्दियुक्त पुरूष पुण्य – पाप दोनों की इस लोक में ही त्याग कर देता है यह समत्व ‘बुध्दि रूप योग ही कर्म ही कर्मबन्धन से छुटने का उपाय है-

बुध्दि युक्तो जहातीत उभे सुकृत दुष्कृते  तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ’

गीता के अनुसार के भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते है बुध्दि से युक्त ज्ञानी पुरूष कर्मो से उत्पन्न होने वाले फल को छोड़कर जन्मरुप बन्धन से छूटे हुए निर्दोष अर्थात् अमृतमय परमपद को प्राप्त होते हैं
         ‘‘कर्मजं बुध्दि युक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः
        जन्य  बन्य बन्धविनिर्मक्ताः पदं गच्छन्त्यनामय्’’
गीता के दूसरे अध्याय को सांख्योग के नाम से पुकारा जाता है पर इस अध्याय का मुख्य प्रतिपाद्य कर्मयोग की ही है। फलतः गीता जगह – जगह अनेक रूपों में कर्मयोग की शिक्षा देती है और उसका समर्थन करती है। इस सम्बन्ध में गीता की पहली मान्यता यह है कि समस्त कर्म किए नहीं रह सकता।

अध्याय दो गीता के उपदेश

प्रकृति के गुणों द्वारा विवश होकर हर एक को कर्म करने पड़ते है। जीवन – रक्षा के लिए कर्म करने ही पड़ते है दूसरे, यदि सब कर्म करना छोड़ दे तो सृष्टि चक्र का चलना बंद हो जाय । कतिपय कर्मों का त्याग न् करने के पक्ष में गीता में तीसरा हेतु यह दिया है कि यज्ञ दान और तप से सम्बध्द कर्म विद्वनों को पवित्र करने वाले होते हैं।

कर्म की इसी महत्ता को अक्षुष्ण रूप से प्रवाहित करते हुए आगे तृतीय आध्याय में भी अर्जुन को प्रेरणा देते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते है –  अर्जुन तुम अवश्य ही शास्त्र निर्धारित् कर्तव्य कर्म करो। क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना। श्रेष्ठ है और कर्म न करने से तो तेरा शरीर निर्वाह भी नहीं होगा।
   ‘‘नयतं कुरू कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः
     शरीरयात्रापि च ते न प्रसिध्दयेदकर्मणः ’’

गीता के अनुसार कर्मयोग क्या है

कर्मयोग की महती परम्परा और उसके द्वारा सम्पन्न महाकल्याण का ओर निर्देश करते हुए तीसरे अध्याय में ही मिथिलाधिपति महान् कर्म –योगी जनक को ऐतिहासिक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करते हुए भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि – जनक आदि ज्ञानी जन भी आसक्ति- रहित कर्म द्वारा ही मोक्ष रूप सिध्दि को प्राप्त हुए थे।

इसलिए तथा लोकसंग्रह को देखते हुए भी तुम्हारे लिए कर्म कर ही उचित है, कल्याणकारी है।

गीता के प्रारम्भिक उपर्युक्त अंश को और अर्जुन की मनःस्थिति को देखते हुए जिस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण उन्हें कर्म में प्रवृत्त करते हैं उसे देखकर यही निश्चय होता है कि कर्मयोग ही गीता का प्राण है, जीवनधायक तत्व है। यही सारे योगों से श्रेष्ठ राजयोग है। व्यक्ति कर्म के पालन से इहलोक और परलोक दोनों में सुख भोग का भागीदार बनता है।

इतना ही नहीं वह स्वधर्म रूप कर्तव्य के पालन से कालान्तर मोक्ष का दावेदार  बनता है। इस प्रकार सभी दृष्टियों से विचार करने पर कर्मयोग ही गीता का मुख्य प्रतिपाद्य प्रतीत होता है। यहाँ कर्मयोग का अर्थ है- निष्काम कर्मयोग

श्रीमदभगवदगीता में वर्णित ज्ञानयोग का वर्णन

उत्तरः- श्रीमदभगवदगीता में ज्ञानयोग आत्माकी एकता का पूर्ण अनुभव है। गीता में ज्ञानयोग की दो दिशाएं हैं।

  • सभी प्राणियों में आत्मा का दर्शन करना।
  • आत्मा में सभी प्राणियों का दर्शन करना। जिस पुरूष में गीता ज्ञान की ये दिशाएँ होती है वह पुरूष ‘समदर्शी’ कहलाता है। गीता में बताया गया है,ति एक ज्ञानी व्यक्ति विनययुक्त ब्रह्यण में तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल में भी समभाव से देखने वाले होते है।

जो ज्ञानी पुरूष यह जान जाते हैं कि ब्रम्हापर्यन्त सम्पूर्ण सृष्टि में एक ही अन्तर्यामी पुरूष का निवास है अर्थात् वासुदेव के सिवा और कुछ भी नहीं है वह मेंरे को भजतात है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है। गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते है- जिसको शीत- उष्ण, सुख दुःख व्यथित नहीं करते, जो दोनों में निर्विकार भाव से रहता है वही मोक्ष पानें का अधिकारी है-
    ‘‘यं हि न व्यथयन्त्येते पुरूष पुऱूषर्षभ
      सम दुःख सुखं धीरं सोमृतत्वाय कल्पते’’

महाभारत के युध्द में अपने सगे सम्बन्धियों को देखकर जब अर्जुन कि कर्तव्य विमूढ़ हो जाते हैं तब भगवान श्री कृष्ण उन्हें ज्ञानयोग का उपदेश देते है। यह ज्ञान विश्व की समस्त मानव जाति को ज्ञान की शिक्षा देनेवाला है। भगवान् श्री कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन जो तुम युध्द छोड़ना चाहते हो यह अज्ञान तो शास्त्र ज्ञान से वंचित नीच पुरूषों को प्राप्त होता है। क्षत्रियों को युध्द्स्थल से भागने पर स्वर्ग नहीं मिलता, अपितु तुम्हें अपयश ही मिलेगा ।

भगवान कहते हैं कि जो तुम व्यक्तिय़ों के मरने की बात करते हो वह असत्य है। आत्मा तो अविनाशी, नित्य, अज शाश्वत, अव्यय एवं पुराण है यह आदि अन्त विहीन है।

     ‘‘यं हि न व्यथयन्त्येते पुरूषं पुरूषर्षभ
       सम दुःख सुखं धीरं सोमृतत्वाय कल्पते’’
महाभारत के युध्द में अपने सगे सम्बन्धियों को देखकर जब अर्जुन कि कर्तव्य विमूढ़ हो जाते हैं तब भगवान श्री कृष्ण उन्हें ज्ञानयोग का उपदेश देते है। यह ज्ञान विश्व की समस्त मानव जाति को ज्ञान कि शिक्षा देने वाला है। भगवान श्री कृष्ण कहते है कि हे अर्जुन जो तुम युध्द छोड़ना चाहते हो यह अज्ञान तो शास्त्र ज्ञान से वंचित नीच पुरूषों को प्राप्त होता है।

क्षात्रियों को युध्दस्थल से भागनें पर स्वर्ग नहीं मिलता, अपितु तुम्हें अपयश ही मिलेगा।
भगवान कहते हैं कि जो तुम व्यक्तियों के मरने की बात करते हों वह असत्य है। यह आदि अन्त विहीन है।
 ‘‘अजो नित्यः शाश्वतोयं पुराणो
      न हन्यते हन्यमाने शरीरे’’

भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि शरीर नाशवान है, आत्मा अमर है। यह अतुलनीय है इसका कभी विनाश नहीं होता, तुम्हारे युध्द करने से इन सभी क्षत्रिय राजाओं की आत्माएं अमर रहेंगी। शरीर समणधर्मी है ही। तुम्हारे युध्द न करने पर भी यह शरीर कभी न कभी नष्ट होगा ही। अतः तुम युध्द करने के लिए तैयार हो जाओं। गीता में श्री कृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हैं कि युध्द करना क्षत्रिय का धर्म है। धर्मपूर्ण युध्द से बढ़कर क्षत्रिय के लिए और कोई कल्याण का साधन नहीं है-

 धर्म्माध्दि युध्दाच्छेयोन्द् क्षत्रियस्य  विद्यते ’
श्री कृष्ण अर्जुन को समझाते हुए ज्ञान का उपदेश देते हुए कह रहे कि – जो मनुष्य  इस संसार में सुख –दुख, लाभ हानि, जय-पराजय सबको समान मानकर युध्द करता है उसे पाप नहीं लगता है।  अतः तुम केवल ईश्वरार्पण बुध्द से काम करों –
‘‘सुखे दुखे समें कृत्वा लाभा लाभौ जया जयौ
          ततो युध्दाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यति’’
श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे अर्जुन सभी वेद तीनों गुणों के कार्य रूप संसार के विषयों को प्रकाशित करनें वाले है। इसलिए तुम निष्काम होकर सुख दुख आदि द्वन्दों से रहित नित्य वस्तु में स्थित तथा योगक्षेम को न चाहने वाले आत्म परायण बनों ।
गीता के अनुसार द्रव्यमय ज्ञान से ज्ञान यज्ञ श्रेयस्कर होता है। श्रीकृष्ण ज्ञान को अत्यधिक पवित्र बताते हैं । क्योंकि सम्पूर्ण कर्म इसी ज्ञान ज्वाला में आकर भष्म हो जाते है।
ज्ञानयोग की साधना में निरत योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में स्थित और सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में कल्पित देखनें का अभ्यासी होता है। वह सम्पूर्ण भूतों में सबके आत्मस्वरूप वासुदेव का और वासुदेव में सारे दृश्य प्रपंच का दर्शन करता है।–
‘‘सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मानि
           ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः’’
इस प्रकार अर्जुन ने श्री कृष्ण से प्राप्त ज्ञान की दिव्य दृष्टि से एक विराट आत्मा में सम्पूर्ण भूतों का एकत्र दर्शन किया। यही सच्चे ज्ञानी का लक्षण है। ज्ञानयोग मोक्ष का हेतु है जिसमें निरतिशय आन्नद की प्राप्ति होती है।

जगद्विदित अद्वैत वेदान्त के परमाचार्य भगवान शंकराचार्य का कहना है कि गीता में जिस योग को प्रधान रूप सें प्रतिपादित किया गया है, वह है – ज्ञानयोग ।

जय श्रीकृष्ण।।।

अर्जुन और श्रीकृष्ण की बातचीत में पूछे गये सवाल जबाव यहाँ नीचे दिया गया है।
प्रश्नः-   श्रीमदभगवदगीता के द्वितीय अध्याय में निष्काम कर्म – योग का प्रतिपादन किया गया है, इस कथन की विवेचना कीजिये।
अथवा
श्रीमदभगदगीता के अनुसार कर्मयोग को स्पष्ट कीजिए ।
अथवा
श्रीमदभगवदगीता के अनुसार निष्काम कर्मयोग का निरूपण कीजिए ।
अथवा
‘योग कर्मसु कौशलम’ का तात्पर्य स्पष्ट कीजिए ।

श्रीमदभगवदगीता में वर्णित ज्ञानयोग का वर्णन कीजिए

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