विदेहमुक्ति का स्वरूप/ ब्राम्ही स्वरुप
गीता में आदर्श पुरूष उसी को बताया गया है जो संसार का त्याग नहीं करता अपितु संसार में रहकर ही कर्मो को करता हुआ मोक्ष को प्राप्त करता है। गीता के अनुसार मनुष्य को अपने वर्णाश्रम के अनुसार नियम कर्मो का सम्पादन करना चाहिए। कर्मफलों में इच्छा नहीं रखनी चाहिए उसे भगवान् के ऊपर छोड़ देना चाहिए । यह पोस्ट विदेहमुक्ति का स्वरूप/ ब्राम्ही स्वरुप का वर्णन करता है
गीता के अनुसार जो समस्त प्राणियोॆ की रात्रि होती है उसमें संयमी पुरूष जगा करता है और जिसमें समस्त संसार के प्राणी जगा करते हैं वह मुनि की रात्रि होती है। सम्पूर्ण प्राणियों के लिए जो रात के समान है जिसे संसार के समस्त प्राणी अचिन्तनीय अकरणीय मानते है तथा अप्रापणीय मानते हैं वह संयमी पुरूष की रात नहीं अपितु दिन होता है।
वह उस समय जागा करता है अर्थात् परमात्म विषयक चिन्तन करता है उन्हें पाने के लिए प्रयत्नशील रहता है और जो संसार के समस्त प्राणियों का दिन होता है वहीं संयमी पुरूषों की रात्रि होती है वह सोया करता है अर्थात् विषयों के प्रति नितान्त उपेक्षित किंवा अभाव देखा करता है यही दोनों प्रकार के व्यक्तियों का अन्तर है- यही विदेमुक्ति का स्वरुप माना जाता है।
‘‘या निशा सर्व भूतानां, तस्यां जागर्ति संयमी
यस्यां जाग्रति भूतानि, सा निशा पश्यतो मुनेः’’
ब्राह्मी स्वरुप के अनुसार
जैसे गंगा यमुना आदि अनेक नदियाँ एवं नद के सैकड़ों जल प्रवाह चारों तरफ से समुद्र में आकर मिलते है, फिर भी समु्द्र स्थिर रहता है। जलराशियों के घटने- बढ़नें की स्थिति मेंं शान्त रहता है और अपनी मर्यादा के भीतर रहता है। उसी तरह जिस (ब्रह्यनिष्ठ) स्थिर बुध्दि पुरूष में भी सभी प्रकार के भोग किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किये बिना ही समा जाते हैं वह पुरूष परमशक्ति को प्राप्त कर लेता है। यही ब्राम्ही स्वरुप का उदाहरण है।
उसी चिन्तवृत्ति अखण्ड ब्रह्य के आकार में परिणत और स्वयं ब्रह्यरूप हो जाता है वही विदेहमुक्त का अधिकारी है इसके विपरीत सांसारिक विषयों को चाहने वाला पुरूष मोक्ष नहीं पाता है।
‘‘आपूर्यमाणमचल प्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत
तद्वत् कामा यं प्रविशन्ति सर्वे सशान्तिभान्नोति न काम कामी’’
श्रीमद्भवगद्गीता में श्री कृष्ण अर्जुन से कहते है- हे अर्जुन जो पुरूष समस्त कामनाओं को त्यागकर ममता रहित, अहंकार रहित और स्पृहारहित विचरण करता है वह शान्ति को प्राप्त कर सकता है।
‘‘विहाय कामान यः सर्वान् पुमांश्चरित निः स्पृहः
निर्ममो विरहंकार स शांन्ति नधि गाछति’’
शरीरदि के प्रति जिसकी ममता नहीं होती यह मै ही हूँ ऐसी अहंकारात्मक बुध्दि जिसे नहीं होती वह हमेशा ब्रह्य में लीन रहता है वही ब्रह्यज्ञानी जगत को ब्रह्य रूप देखता हुआ सर्वत्र ब्रह्यानन्द का अनुभव करता हुआ जावन मुक्त होकर विचरण करता है।गीता में भगवान श्री कृष्ण ‘ब्राह्यी स्थिति ’ शब्द को विदेह मुक्ति की ओक संकेत करते हैं।
वे कहते हैं कि विदेह मुक्ति होने पर प्राणी फिर शरीर धारण नहीं करता है। इस ब्रह्य स्वरूप को प्राप्त कराने वाली निष्ठा को पाकर प्राणी मोहित नहीं होता क्योंकि वह अपने शरीर को न मानकर आत्मा को मानता है।
इस ब्रह्यनिष्ठा में तल्लीन होकर मुमुक्ष पुरूष पुण्य कर्मो के फलस्वरूप प्रारब्धवश कुछ समय संसार में रहता है, परन्तु शरीर को अन्तिम स्थिति में ब्रह्यस्वरूप में लीन होकर नित्य आनन्दस्वरूप एकरस ब्रह्या को प्राप्त कर लेता है अर्थात मु्क्त हो जाता है एवं विदेह मुक्ति को प्राप्त करता है –
‘‘ऐषां ब्राह्यी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्त विमुह्याति
स्थित्वास्यामन्तकालेपि ब्रह्य निर्वाण मृच्छति’’
श्रीमद्भगवद्गीता के आधार पर क्षात्रधर्म का विवेचन
श्रीमद्भगवद्गीता में कर्म भक्ति और ज्ञान का प्रतिपादन हुआ है। गीता कर्म, भक्ति , और ज्ञान की त्रिवेणी का पावन संगम है। युध्द स्थल कुरूक्षेत्र में जब अर्जुन का रथ दोनों सेनाओं के मध्य में आता है।
अर्जुन अपने सगे सम्बन्धियों को देखकर मोहित हो जाते हैं और भगवान श्रीकृष्ण स्पष्ट कहते है कि- यदि मेरे शत्रु मेरा वध करना चाहे तो भले कर दें किन्तु मै उनपर प्रहार नहीं करूंगा । ये क्षात्रधर्म के विवेचन का उदाहरण है।
अर्जुन की अतिदयनीय स्थिति देखकर भगवान श्री कृष्ण युध्दरूपी कर्म को क्षत्रिय का धर्म है धर्मपूर्ण युध्द से बढ़कर क्षत्रिय के लिए और कोई कल्याण का साधान नहीं है।
‘‘ धर्म्माध्दि यु्ध्दाच्छेयोन्यद् क्षत्रियस्य न विद्यते’’
हे कुन्तिपुत्र अर्जुन, अपने – आप प्राप्त हुए और खुले हुए स्वर्ग के द्वारा रूप ऐसे युध्द को भगवान क्षत्रिय लोग ही पाते है-
‘‘यदृष्टया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युध्दमीदृशम्’’
भगवान अर्जुन को कह रहे है कि इस युध्द के कारण तुम नही। अपितु यह तो दूसरों के कार्य का प्रतिफल है, यह स्वयं तुम्हारे सामनें उपस्थित हुआ है। ऐसा धर्म युध्द क्षत्रियों के लिए परम सौभाग्य होता है। क्योकि अपने क्षात्रधर्मके पालन के लिए उचित अवसर तथा स्थान प्राप्त होना तो भाग्य पर ही निर्भर है।
अतः हे अर्जुन । तुम्हारे सौभाग्य से ही इस युध्द में अपनी वीरता प्रदर्शन तथा धर्मजय का अवसर प्राप्त हुआ है। जो योध्दा धर्म पालन करते हुए यदि युध्द में मारा जाता है तो उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
अतः यह युध्द तो तुम्हारे लिए स्वर्ग का खुला द्वार है। अर्जुन ऐसे युध्द को पाकर क्षत्रिय लोग सदैव सुखी होते है।
भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को समझाते हुए कहते है कि ‘अर्जुन’ यदि तुम इस धर्म- युध्द को नहीं करोगे तो तुम्हारा शास्त्रोक्त धर्म छूट जायेगा और इसके छुटने से तुम्हारी कीर्ति नष्ट हो जायेगी और तुम पाप के भागी बनोगे। तु्म्हे कर्मो से सन्यास लेनें का फल नहीं मिलेगा।
अथ चेत्वमिमं धर्म्य संग्रामं न करिष्यसि
ततः स्वधर्म कीर्ति च हित्वा पापमवाप्स्यसि।’’
इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के आधार पर ‘‘क्षत्रियों का स्वधर्म युध्द करना और प्रजा का पालन है’’श्री कृष्ण कहते है शास्त्रोक्त इस क्षत्रिय धर्म को सोचकर तुम्हें विचलित नहीं होना चाहिए। स्वधर्म त्यागना नहीं चाहिए और यज्ञ की भाति उसमें शोक मोह और हिंसादि दोष का विचार नही करना चाहिए।
विजय से प्राप्तधन से यज्ञ, दान, व्रतादि कार्यो से चित्त शुध्दि और ज्ञान प्राप्त होती है। और ज्ञान से मोक्ष होता है। इस तरह युध्द मोक्षरूप कल्याण का साधन है। अतः तुम्हें निश्चित रूप से युध्द करना चाहिेए ।
श्रीमद्भगवद्गीता के नवम् अध्याय का प्रतिपाद्य
इस अध्याय में भगवान ने जो उपदेश दिया है, उसको उन्होने सब विद्याओ का और समस्त गुप्त रखने योग्य भावो का राजा बतलाया इसलिये इस अध्याय का नाम ‘राजविद्याराज-गुह्यायोग’ रखा गया है। इसमें कुल 34 श्लोक है।
इस अध्याय के पहले और दूसरे श्लोकों में अर्जुन को पुनः विज्ञान सहित ज्ञान का उपदेश करने की प्रतिज्ञा करके उसका महात्म्य बतलाया है।
श्रीमद्भगवद्गीता के नवम् अध्याय
तीसरें में उस उपदेश में श्रध्दा न रखनें वालों के लिये जन्ममरण रूप संसार चक्र की प्राप्ति बतलायी गयी है। चौथे से छठे तक भगवान निराकार वर्णन की व्यापकता और निर्लेपताका वर्णन करते हुए भगवान की ईश्वरीय योगशक्ति दिग्दर्शन कराकर उसी स्वरूप में समस्त भूतों की स्थिति वायु और आकाश के दृष्टान्तपूर्वक बतलायी गयी हैं।
तदन्तर सातवें से दसवें तक महाप्रलय के समय समस्त प्रणियों का भगवान की प्रकृति में लय होना और कल्पो के आदि में पुनः भगवान के सकाश से प्रकाश से प्रकृति द्वारा उनका रचा जाना एवं इन सब कर्मों को करते हुए भी भगवान का उनसे नर्लिप्त रहना बतलाया गया है।
ग्यारहवे और बारहवे में भगवान के प्रभाव को न जानने के कारण तिरस्कार करने वालों की निन्दा करके तेरहवें और चौदहवें में भगवान भक्तों के भजन का प्रकार बतलाया गया है।
नवम् अध्याय का प्रतिपाद्य
पंद्रहवें में एकत्वभाव से ज्ञानयज्ञ के द्वारा ब्रह्य की उपासना करने वाले ज्ञानयोगियों का वर्णन किया गया है। सोलहवें से उन्नीसवें तक भगवान ने अपने गुण, प्रभाव और विभूति सहित स्वरूप समस्त जगत् को भी अपना स्वरूप बतलाया है। बीसवें और इक्कीसवें में स्वर्गभोग के लिये यज्ञादि कर्म करने वालों के आवागमन का वर्णन करके बाईसवें निष्काम भाव से नित्य निरन्तर चिन्तन करने वाले अपने भक्त के योगक्षेम स्वयं वहन करने की प्रतिज्ञा की हैं।
तेईसवे, पचीसवें तक अन्य देवताओ की उपासना को भी प्रकारान्तर से अविधि पूर्वक अपनी उपासना का फल प्राप्ति बतलाया छब्बीसवें में भगबध्द की सुगमता दिखलाकर सत्ताईसवें में अर्जुन को सब कर्म भगवदर्पण करने के लिये कहा है और अंट्ठाईसवें में उसका फल अपनी प्राप्ति बतलाया है।
श्रीमद्भगवद्गीता
उनतीसवें में अपनी समता का वर्णन करके तीसवे और इकतीसवे में दुराचारी होने पर भी अनन्य भक्त के भगवान के भजन का महत्व दिखलाया है।
वत्तीसवें में अपनी शरणागति से स्त्री वैश्य शूद्र और चाण्डालादि को भी परम, गति रूप फल की प्राप्ति बतलायी तैतीसवें और चौतीसवें में पुण्यशील ब्राह्रयण और राजर्षि भक्तजन की बड़ाई करके शरीर को अनित्य बतलाते हुए अर्जुन अर्जुन अपनी शरण होने के लिये कहकर अग्ड़ोसहित शरणागति के स्वरूप का निरूपण करके अध्याय का उपसंहार किया है।