श्रीमद्भगवद् गीता प्रथम अध्याय

प्रिय दोस्तो, भाईयों एवं बहनों मैं आप लोगो को  श्रीमद्भगवदगीता के श्लोक, व्याख्या सहित इस वेवसाइट पर उपलब्ध कराऊँगी। श्रीमद्भगवद् गीता हिन्दु धर्म का  बहुत बड़ा ग्रंथ है। इसे हिन्दु धर्म में पवित्र ग्रंथ माना जाता  है।  आप लोग Pdfin.in  से जुड़े और धर्म से जुडी भगवदगीता का अर्थ सहित जानकारी लें ।  भगवदगीता में भगवान श्री कृष्ण उपदेश दिये है। कुरूक्षेत्र के युध्द में श्री कृष्ण अर्जुन के मार्ग दर्शक थे। जो इन्होंने उन्हे बल,   बुध्दि , साहस, कर्मयोग, मोह और  माया  का ज्ञान दिया था। जिस तरह एक सामान्य मनुष्य अपने जीवन कि कठिनाई, समस्या से परशान होकर  घबरा जाता है और अपने कर्म करना छोड़ देता है, इसी परशानीयों में उलझा रहता है। 

श्रीमद्भगवद् गीता प्रथम अध्याय के सार

श्रीमद्भगवद् गीता प्रथम अध्याय में इस लिए भगवान ने भगवदगीता के पृष्टभूमि से कहते हुए अर्जुन को समझाया है। श्री कृष्ण ने गीता में कहा- हे अर्जुन जो मनुष्य अपने कर्म को नहीं कर्ता वह कर्महीन व्यक्ति होता है। हमें अपने अधिकारो पर लड़ना चाहिए,  अपने अधिकार पर लड़ना कोई पाप नहीं होता,  बल्की यह पुण्य है।


भगवान श्री कृष्ण ने गीता में मनुष्य को संदेश देते हुए यह भी कहाँ कि हे अर्जुन अगर आप कुरूक्षेत्र के युध्द से हट गये तो । भविष्य में हर एक मनुष्य अपने कर्म से हट जायेगा। इस लिए आने वाले भविष्य का ध्यान दो, हर मानव अपने कर्म से डटे रहे । इसी मनुष्य को अपने कर्म से जुडना चाहिए , कर्म ही भगवान का पूजा होता है। 

Shreemad Bhagwad Geeta

श्रीमद्भगवद् गीता  के सार

     श्रीमद्भगवद् गीता  

 ( तत्त्वविवेचनी हिन्दी – टीकासहित ) 

प्रथम अध्याय –

श्री कृष्ण  ने अर्जुन को कारण बनाकर विश्व के सभी  लोगो को श्रीमद्भगवद्गीता   के रूप में जो बड़ा  उपदेश दिया है, यह अध्याय उसकी परदा के रूप में है। इसमें दोनों ओर के प्रधान – प्रधान योध्दाओं के नाम गिना जाने के बाद मुख्यतया अर्जुन के बन्धुनाश की आंशका से उत्पन्न मोहजनित विषाद का ही वर्णन हैं। इस प्रकार का विषाद भी अच्छा संग मिल जाने पर संसार के भोगों में वैराग्य कि भावना द्वारा कल्याण की ओर अग्रसर करने वाला हो जाता है। इसलिये इसका नाम ‘अर्जुन – विषाद – योग’ रखा गया है।


इस अध्याय के पहले श्लोक मे धृतराष्ट्र ने संजय से युध्दका विवरण पूछा है, इस पर संजय ने दूसरे में द्रोणाचार्य के पास जाकर दुर्योधन के बातचीत आरम्भ करने का वर्णन किया है, तीसरे में दुर्योधन ने द्रोणाचार्य से विशाल पाण्डव – सेना देखने के लिये कह कर चौथे से छठे तक उस सेना के प्रमुख योध्दाओं के नाम बतलाये हैं। सातवें में द्रोणाचार्य से अपनी सेना के प्रधान सेनानायको कों भीलीभाँति जान लेने के लिये कहकर आठवें और नवें श्लोकों में उनमें से कुछ के नाम और सब वीरों के पराक्रम तथा यूध्दकौशल का वर्णन किया है।

श्रीमद्भगवद् गीता प्रथम अध्याय का वर्णन

दसवें श्लोक में श्रीमद्भगवद् गीता प्रथम अध्याय का वर्णन के अनुसार अपनी सेना को अजेय और पाण्डवों की सेना को अपनी अपेक्षा मकजोर बतलाकर ग्यारहवें में सब वीरों से भीष्म की रक्षा करने के लिये अनुरोध किया है। बारहवें में भीष्मपितामह के शंख बजाने वा और तेरहवे में कौरव सेना में शंख, नगारे, ढोल, मृदंग और नरसिंघे नरसिंहे आदि विभिन्न बाजों के एक ही साथ बज उठने का वर्णन है । चौदहवें से अठारहवें तक क्रमशः भगवान् श्री कृष्ण, अर्जुन, भीमसेन, युधिष्ठर,  नकुल, सहदेव तथा पाण्डव – सेना के  अन्यान्य समस्त विशिष्ट योध्दाओं के द्वारा अपनें -अपने शंख बजाये जाने का और उन्नीसवें में उस शंखध्वनि के भयंकर शब्द से आकाश और पृथ्वी के गूँज उठने तथा दुर्योधनादि के व्यथित होने का वर्णन है।

बीसवें और इक्कीसवें में धृतराष्ट – पुत्रों को युध्द के लिये तैयार देखकर अर्जुन ने श्री कृष्ण से अपना रथ दोनों सेनाओं के बीच में ले चलने के लिये कहा है और बाईसवें तथा तेईसवें में सारी सेना को भली भाँति देख चुकने तक रथ को वहीं खड़े रखने का संकेेत करके सबको देखने की इच्छा प्रकट की है।

पाठ चौदह और पन्द्रह गीता

पाठ चौदह और पाठ पन्द्रह के हिसाब से अर्जुन जी के आग्रह पर रथ को दोनों सेनाओं के मध्य करके  भगवान श्री कृष्ण ने युध्द के लिये इकठ्ठा करके सब वीरों को देखने के लिये अर्जुन से कहा है, इसके बाद तीसवे तक स्वजन – समुदाय को देखकर अर्जुन के व्याकुल होने का तथा अर्जुन के द्वारा अपनी शोकाकुल स्थितिका का वर्णन हैें । इकतीसवें श्लोक में युध्द के विपरीत परिणाम की बात कहकर बत्तीसवें और तैतीसवे में आचार्य स्वजनों को वर्णन करके अर्जुन नें  ‘मुझे मार डालने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिये भी मैं इन गुरूऔर पिता – पुत्र अपने परिवार के लोगो  को मारना उचित नही है’ इतना  कहकर छत्तीस और सैंतीस में दुर्योधन अपने सगे सम्बन्धों  के उपद्रवी और अत्याचारी  होने पर भी उन्हे मारने में पाप की प्राप्ति और सुख तथा प्रसन्नता का अभाव बतलाया है, अड़तीसवें तथा उनतालीसवे और कुलके नाश और मित्रद्रोह से होनेवाले पाप से बचने के लिये युध्द न करना उचित बतला कर चालीसंवें  से चौवालीसवें में कुलनाश से उत्पन्न होनेवाले दोषों का विस्तार पूर्वक वर्णन किया है ।

पैतालीसवें और छियालीसवें श्लोक में गीता में क्या बताया गया है

 

पैंतालीसवें और छयालीसवें में राज्य और सुखादि के लोभ से स्वजनों को मारने के लिये की हुई युध्द की तैयारी को महान् पाप का आरम्भ बतलाकर शोक प्रकाश करते हुए अर्जुन ने दुर्योधन के द्वारा अपने मारे जाने की श्रेष्ठ बतलाया है और अन्त के सैंतालीसवें श्लोक में युध्द न करने का निश्चय करके शोकनिमग्न अर्जुन के शस्त्रत्यागपूर्वक रथपर बैठ जानेकी बात कहकर संजय ने अध्याय की समाप्ति की है।
सम्बन्ध – पाण्डवों के राजसूय यज्ञ में उनके महानं ऐश्वर्य को देखकर दुर्योधन के मनमें बड़ी भारी जनल पैदा हो गयी और उन्होनें शकुनि आदिकी सम्मति से जुआ खेलने के लिये युधिष्ठिरादि पाँचों भाई द्रौपदी सहित बारह वर्ष वन में रहे और एक साल छिपकर रहे, इस प्रकार तेरह वर्ष समाप्त राज्य पर दुर्योधन का अधिपत्य रहे और पाण्डवो के एक  वर्ष केबिना किसी के द्वारा जाने गए किसी  अपरिचित स्थान में रहने  और रहस्य  न खुल जाय  तब तेरह वर्ष के बाद पाण्डवों का राज्य उन्हे  वापस कर दिया  जायेगा। इस निर्णय के पर  तेरह साल  गुजारने  के बाद जब पाण्डवों ने अपना राज्य वापस माँगा तब दुर्योधन ने साफ इनकार कर दिया । उन्हें समझने के लिये द्रुपद के , ज्ञान और अवस्था में वृध्द पुरोहित को भेजा गया, परन्तु उन्होंने कोई बात नहीं मानी। तब दोनों ओर से युध्द की तैयारी होने लगी। 


भगवान् श्रीकृष्ण को रण – निमन्त्रण देने के लिये दुर्योधन द्वाराका पहुँचे, उसी दिन अर्जुन भी वहाँ पहुँच गये । दोनों ने जाकर देखा- भगवान् अपने भवन में सो रहे हैं। उन्हें सोते देखकर दुर्योधन उनके सिराहने एक मूल्यवान् आसन पर जा बैठे और अर्जुन दोनों हाथ जोड़कर नम्रता के साथ उनके चरणों के सामने खड़े हो गये। जागते ही श्री कृष्ण ने अपने सामने अर्जुन को देखा और फिर पीछे की ओर मुड़कर देखने पर सिरहाने की ओर बैठे हुए दुर्योधन दीख पड़े। भगवान् श्री कृष्ण ने दोनों का स्वागत – सम्मान किये  और उनके आने का कारण पूछा । तब दुर्योधन ने  बोला  – ‘मुझमें और अर्जुन में आप का एक -सा ही  व्यवहार  है और हम दोनों ही आप के  सगेे सम्बधी है, परंतु आप के पास पहले मैं आया हूँ, सज्जनों का नियम है कि वे पहले आनेवाले की सहायता किया करते हैं। सारे भूमण्डल में आज आप ही सब सज्जनों में श्रेष्ठ और सम्माननीय है, इसलिये आप को मेरी ही सहायता करनी चाहिये।

भगवान ने कहा – निः सन्देह, आप पहले आये है, परंतु मैनें पहले अर्जुन को ही देखा है। इसलिये मैं दोनों सहायता करूँगा। परंन्तु शास्त्रानुसार बालको की इच्छा पहले  पूरी की जाती है, इसलिये पहले अर्जुन की इच्छा ही पूरी करनी चाहिये। मैं दो प्रकार से सहायता करूँगा। 


एक ओर मेरी अत्यन्त बलशाली नारायणी – सेना रहेगी और दूसरी ओर मैं, युध्द न करने का प्रण करके, अकेला रहूँगा, मैं शस्त्र का प्रयोग नहीं करूँगा।  अर्जुन धर्मानुसार पहले तुम्हारी इच्छा पूर्ण होनी चाहिये, अतएव दोनों में से जिसे पसंद करो, माँग लो इसपर अर्जुन ने शत्रुनाशन नारायण भगवान् श्री कृष्ण को माँग लिया। तब दुर्योधन ने उनकी नारायणी – सेना माँग ली और उसे लेकर वे बड़ी प्रसन्नता के साथ हस्तिनापुर को लौट गये । 

गीता का उपदेश प्रथम अध्याय

 गीता के उपदेश के अनुसार इसके बाद भगवान् ने अर्जुन से पूछा – अर्जुन जब मै युध्द ही नही करूँगा, तब तुमने क्या समझकर नारायणी – सेना को छोड़ दिया और मुझको स्वीकार किया ? अर्जुन ने कहा – भगवान आप अकेले ही सबका नाश करने में समर्थ हैं, तब मैं सेना लेकर क्या करता ? इसके सिवा बहुत देनों से मेरी इच्छा थी कि आप मेंरे सारथि बने,अब इस महायुध्द मेरी उस इच्छा को आप अवश्य पूर्ण कीजिये। भक्तवत्सल भगवान् ने अर्जुन के इच्छानुसार उसके रथके घोड़े हाँकने का काम स्वीकार किया। इसी प्रसंग के अनुसार भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथि बने और युध्दारम्भ के समय कुरूक्षेत्र में उन्हें गीता का  दिव्य उपदेश सुनाया। 


दुर्योधन और अर्जुन के द्वारका से वापस लौट आनेपर जिस समय दोनों ओर की सेना एकत्र हो चुकी थी, उस समय भगवान् – श्री कृष्ण ने स्वयं हस्तिनापुर जाकर हर तरह से दुर्योधन को समझाने की चेष्टा  की, परंतु उन्होने स्पष्ट कह दिया – मेरे जीते – जी पाण्डव कदापि राज्य नहीं पा सकते,यहा तक मैं सूई की नोकभर भी जमीन मैं पाण्डवों को नहीं दूँगा। तब अपना न्यायोचित स्वत्व प्राप्त करने के लिये माता कुन्ती की आज्ञा और भगवान् श्री कृष्ण की प्रेरणा से पाण्डवों ने धर्म समझकर युध्द के लिये तय  कर लिया। जब दो पछों ओर से युध्द की पूरी तैयारी होने लगी , तब भगवान् वेदव्यास  ने धृतराष्ट्र  से  कहा   कहा – ‘यदि तुम महा युध्द  देखना चाहते हो  तो मैं तुम्हें दीप्तियुक्त नेत्र प्रदान कर सकता हूँ। 

 

आशा करता हूँ कि आपको गीता का यह सार बहुत पसन्द आया होगा। धन्यवाद

 

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