कोई भी प्रतियोगी परीक्षा हो हर परीक्षा में जयशंकर प्रसाद जी से एक या दो प्रश्न पूछ लिये जाते हैं तो इस बात का ध्यान रखते हुए नीचे के जीवन परिचय को ध्यानपूर्वक पढ़ें और कण्ठस्य करें।
जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय
जयशंकर प्रसाद का जन्म काशी के प्रसिद्ध ‘सुँघनी लाहु’ परिवार में सन् 1889 ईं में हुआ था । इनके पिता का नाम देवीप्रसाद था। पिता एवं बड़े भाई का स्वर्गवास इनके बाल्यकाल में ही हो गया था । पिता ने जयशंकर प्रसाद शिक्षा दीक्षा की उचित व्यवस्था की थी, किन्तु उनके निधन के पश्चात प्रसाद जी की शिक्षा का क्रम नियमित रुप से नहीं चल सका ।
परिवारिक व्यवसाय का सारा बोझ इन्ही को उठाना पड़ा। घर पर ही इन्होनें अंग्रेजी , हिन्दी बँगला एवं संस्कृत भाषा का ज्ञान प्राप्त किया । प्रसाद जी को जीवन में अनेक विप्तियों का सामना करना पड़ा । तीन पत्नियों की मृत्यु हुई, अनेक मुकदमें लड़ने पड़ें । अपने पैतृक कार्य को करते हुए भी इन्होंने अपने भीतर काव्य- प्रेरणा को जीवित रखा।
इनका जीवन बहुत सरला था । सभा – सम्मेलनों को भीड़ से ये दूर ही रहा करते थे। अत्यधिक श्रम तथा जीवन के अन्तिम दिनों में राजयक्ष्मा से पीड़ित रहने के कारण 1937 ईँ को 48 वर्ष की अल्पआयु में ही इनका स्वर्गवास हो गया।
जयशंकर प्रसाद का साहित्यिक परिचय
प्रसाद जी आधुनिक हिन्दी काव्य के सर्वप्रथम कवि थे । इन्होंने अपनी कविताओं में सूक्ष्म अनुभूतियों का रहस्यवादी चित्रण प्रारम्भ किया, जो इनके काव्य के की एक प्रमुख विशेषता है । इनके नवीन प्रयोग ने काव्य जगत में एक क्रान्ति उत्पन्न कर दी और छायावादी युग का सूत्रपात किया।
इन्होंने काव्य-सृजन के साथ ही ‘हंस ’ एवं ‘इन्दु’ नामक पत्रिकाओं का प्रकाशन भी कराया। ‘कामायनी’ के लिये जयशंकर साहब को ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ के वास्ते ‘मंगला प्रसाद पारितोषिक’ से सम्मानित किया गया।
जयशंकर प्रसाद की रचनायें
- जयशंकर प्रसाद जी ने 27 कृतियों की रचना की। इसमें से कुछ इस प्रकार हैं।
1 काव्य- कामायनी: इस ग्रन्थ में जहाँ मनु और श्रद्धा प्रलय के बाद सृष्टि संचालक बताया गया है, - आँसू: यह आधुनिक हिन्दी साहित्य का अनुपम धरोहर है। इसमें हृदय की व्यथा को प्रवाहयुक्त शैली में कहा गया है।
- झरना: इसमें प्रेम और सौन्दर्य के साथ प्रकृति के मनोरम रुप का भी चित्रण किया गया है।
लहर: इसमें छायावाद का प्रौढतम रुप मिलता है। इसमें हृदय भावों के बड़े ही मार्मिक चित्र प्रस्तुत किये गये हैं। - कानन कुसुम: इसमें खड़ी बोली की छह कवितायें तथा शेष छायावादी गीत हैं। यह प्रसाद जी की फुटकर रचनाओं का संकलन है।
- चित्राधार- इसमें प्रसाद जी की प्रारम्भिक ब्रजभाषा की रचनायें संकलित हैं।
- 2- नाटक: प्रसाद जी एक सफल नाटक लेखक भी थे। आपके नाटकों में ‘चन्द्रगुप्त’, ‘स्कन्दगुप्त’, ‘ध्रुवस्वामिनी’, ‘कामना’, ‘जनमेजय का नागयज्ञ’, एक घूँट विशाख कल्याणी, राज्यश्री, अजातशत्रु, तथा प्रायश्चित मुख्य है।
जयशंकर प्रसाद द्वारा उपन्यास
उपन्यास: प्रसाद जी ने तीन उपन्यास भी लिखा- कंकाल, तितली, इरावती
जयशंकर प्रसाद द्वारा कहानी संग्रह
कहानी संग्रह: जयशंकर प्रसाद जी ने उत्कृष्ट कहानियाँ भी लिखी। इन कहानियों में भारत के अतीत का गौरव साकार हो उठता है। इनके कहानी संग्रह हैं- प्रतिध्वनि, आँधी, इन्द्रजाल एवं आकाशदीप।
जयशंकर प्रसाद द्वारा लिखित निबन्ध
निबन्ध: इन्होने निबन्ध भी लिखा: काब्य और कला।
भाषा शैली- प्रसाद जी की भाषा पूर्णतः साहित्यिक, परिमार्जित एवं परिष्कृत है। भाषा प्रवाहयुक्त होते हुय़े भी संस्कृतनिष्ठ खड़ीबोली है, जिसमें सर्वत्र ओज एवं माधुर्य गुण विद्यमान है। अपने सूक्ष्म भावों को व्यक्त करने के लिये प्रसाद जी ने लक्षणा एवं व्यंजना का आश्रय लिया है। प्रसाद जी की शैली काव्यात्मक चमत्कारों से परिपूर्ण है। संगीतात्मक एवं लय पर आधारित इनकी शैली सरस एवं मधुर है।
जयशंकर प्रसाद की जीवनी एक नजर में
- जन्म – सन 1889 ई0
- मृत्यु – सन 1937 ई0
- जन्म स्थान – वाराणसी (उ0 प्र0)
- पिता – बाबू देवी प्रसाद।
- भाषा – खड़ी बोली
- छायावादी युग के प्रवर्तक
जयशंकर प्रसाद जी द्वारा लिखित कविता
चौंक उठी अपने विचार से
कुछ दूरागति ध्वनि सुनती,
इस निस्तब्ध निशा में कोई
चली आ रही है कहती-
“अरे बतो दो मुझे दया कर
कहाँ प्रवासी है मेरा?
उसी बावले से मिलने को
डाल रही हूँ मै फेरा।
रुठ गया था अपनेपन से
अपना सकी ना उसको मैं,
वह तो मेरा अपना ही था
भला मनाती किसको मै!
यही भूल अब शूल सदृश हो,
साल रही उर में मेरे,
कैसे पाऊंगी ऊसको मैं
कोई आकर कह दे रे!”
इड़ा उठी, दिख पड़ा राजपथ
धुँधली सी छाया चलती,
वाणी में थी वरुण वेदना
वह पुकार जैसी जलती।
शिथिल शरीर वसन विश्रृंखल
कबरी अधिक अधीर खुली,
छिन्न पत्र मकरन्द लुटी-सी
ज्यों मुरझायी हुई कली।
नव कोमल अवलम्ब साथ में
वय किशोर ऊँगली पकड़े,
चला आ रहा मौन धैर्य सा
अपनी माता को जकड़े।
थके हुए थे दुखी बटोही,
वे दोनों ही माँ-बेटे,
खोज रहे थे भूले मनु को
जो घायल होकर लेटे।
इड़ा आज कुछ द्रवित हो रही
दुखियों को देखा उसने,
पहुँची पास और फिर पूछा
“तुमको बिसराया किसने?
इस रजनी में कहाँ भटकती
जाओगी तुम बोलो तो,
बैठो आज अधिक चंचल हूँ
व्यथा गाँठ निज खोलो तो।
जीवन की लम्बी यात्रा में
खोए भी हैं मिल जाते,
जीवन है तो कभी मिलन है
कट जाती दुख की रातें
श्रद्धा रुकी कुमार श्रांत था
मिलता है विश्राम यहीं,
चली इड़ी के साथ जहाँ पर
वहीं शिखा-प्रज्वलित रही।
सहसा धधकी वेदी ज्वाला
मण्डप आलोकित करती,
कामायनी देख पायी कुछ
पहुँची उस तक डग भरती।
और वही मनु! घायल सचमुच
तो क्या सच्चा स्वप्न रहा?
‘आह प्राण प्रिय ! यह क्या? तुम यों?”
धुला हृदय, बन नीर बहा।
इड़ा चकित, श्रद्धा आ बैठी
वह थी मनु को सहलाती,
अनुलेपन-सा मधुर स्पर्श था
व्यथा भला क्यों रह जाती?
उस मूर्छित नीरवता में कुछ
हलके से स्पन्दन आये।
आँखें खुली चार कोनों में
चार बिन्दु आकर छाये।
उधर कुमार देखता ऊँचे,
मन्दिर, मण्डप, वेदी को,
यह सब क्या है नया मनोहर
कैसे ये लगते जी क?
माँ ने कहा ‘अरे आ तू भी
देख पिता हैं पड़े हुए’
‘पिता! आ गया लो’ यह कहते
उसके रोंये खड़े हुए।
‘माँ जल दे, कुछ प्यासे होंगे
क्या बैठी कर रही यहाँ
मुखर हो गया सूना मण्डप
यह सजीवता रही कहाँ?
आत्मीयता घुली उस घर में
छोटा-सा परिवार बना,
छाया एक मधुर स्वर उस पर
श्रद्धा का संगीत बना।
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