दोस्तों इस पोस्ट में Shree Mad Bhagwad Gita श्रीमदभागवदगीता में दिये गये उपदेश के बारें में विस्तार से समझाया गया है।
इस पर धृतराष्ट्र ने कहा – ‘ब्रम्हर्षिश्रेष्ठ !मैं कुलके इस हत्याकाण्ड को अपनी आँखों देखना तो नहीं चाहता, परन्तु युध्द का सारा वत्तान्त भलीभाँति सुनना चाहता हूँ।’ तब महर्षिवेदव्यस संजय को दिव्यदृष्टि प्रदान करके धृतराष्ट्र से कहा – ‘ये संजय तुम्हें युध्द का सब वृत्तान्त सुनावेंगे। युध्द की समस्त घटनावलियों को ये प्रत्यक्ष देख , सुन और जान सकेंगे ।
सामने या पीछे से, दिन में या रात में,ऐसी कोई बात न होगी जो इनसे तनिक भी छिपी रह सकेगी और न इन्हें जरा भी थकावट ही होगी।’
महाभारत में संजय से बातचीत
यह अनहोनी होना जरूरी है। जो लिखा रहता है वो तो होता ही है इसे भला कौन टाल सकता है । सच्चाई की हमेशा विजय मिलती है, सच्चाई ही धर्म होता है और धर्म का ही जीत होती है। महात्मा वेदव्यास जी के जाने के पश्चात धृतराष्ट्र के प्रश्न पूछने पर संजय ने उनको धरती के भिन्न – भिन्न जगहो का चक्रव्यूह सुनाते थे , उसी में संजन ने भरत वर्ष का भी विवरण किया ।
तदन्तर जब कौरव- पाण्डवों का युध्द आरम्भ हो गयाऔर लगातार दस दिनों तक युध्द होनेपर पितामह भीष्म रणभूमि में रथ से गिरा दिये गये, बत संजय ने धृतराष्ट्र के पास आकर उन्हें आकस्मात् भीष्म के मारे जाने का समाचार सुनाया ।
पाण्डवों का युद्ध
उसे सुनकर धृतराष्ट्र को बड़ा ही दुख हुआ और युध्द की सारी बातें विस्तार पूर्वक सुनाने के लिये उन्होंने संंजय से कहा, तब संजय ने दोनो ओर की सेनाओं की व्यूह – रचना आदिका विस्तृत वर्णन किया। इसके बाद धृतराष्ट्र ने विशेष विस्तार के साथ आरम्भ से अबतक की पूरी घटनाएँ जानने के लिये संजय से प्रश्न किया।
यहींं से श्रीमद्भगवदगीता का पहला अध्याय आरम्भ होता है। महाभारत, भीष्मपर्व में यह पचीसवाँ अध्याय है। इसके आरम्भ में
धृतराष्ट्र संजय से प्रश्न करते हैं –
धृतराष्ट्र उपवाच
धर्मक्षेत्र कुरूक्षेत्र समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ।।1।।
धर्मक्षेत्रे, कुरूक्षेत्र, समवेताः, युयुत्सवः,
मामकाः, पाण्डवाः, च, एव, किम्, अकुर्वत, सञ्जय ।।1 ।।
सञ्यय = हे संजय।, युयुत्सवः = युध्द की इच्छावाले
धर्मक्षेत्रे = धर्मभूमि, मामकाः = मेरे
कुरूक्षेत्रे = कुरूक्षेत्र में, च = और
समवेताः = एकत्रित, पाण्डवाः = पाण्डु के पुत्रो ने
किम् = क्या , अकुर्वत = किया ?
कुरुक्षेत्र किस जगह है?
धृतराष्ट्र बोले – है संजय ! इस धर्म की धरती पर युध्द क्षेत्र मे इकट्ठा, लड़ाई को चाहने वाला मेरे और पाँच पाण्डव ने क्या किया ?।।1 ।।
प्रश्न –कुरूक्षेत्र किस जगह है औऱ उसे लोग धर्मभूमि क्यो कहते है।
उत्तर – महाभारत में , पाण्डव का वनवास के जिस वन में कृष्ण ने पाण्डव से मिले तिरानवे अध्याय में और द्रोपदी और भी द्वारा युधिष्ठिर को उत्साहित कियाथा तिरपनवे अध्याय में कुरूक्षेत्र के माहात्म्य का विशेष वर्णन मिलता है, वहाँ इसे सरस्वती नदी के दक्षिण भाग और दृषद्वती नदी के उत्तर भाग के मध्य में बतलाया है। कहते हैं कि इसकी लंबाई – चौड़ाई पाँच – पाँच योजन थी ।
यह जगह आबांला के दक्षिण दिशा और दिल्ली से उत्तरी दिशा की तरफ है। इस समय भी कुरूक्षेत्र नाम का जगह वहा है। इस जगह परशुराम ने समस्त पक्षियों को मारा था ।
शतपथब्रम्हाणादि शास्त्रों मे कहा है कि यहाँ अग्नि, इन्द्र, ब्रम्हा, आदि देवताओं ने तप किया था, राजा कुरू ने भी यहाँ बड़ी तपस्या की थी तथा यहाँ
मरनेवालों को उत्तम गति प्राप्त होती है। इसके अतिरिक्त और भी कई बातें है, जिनके कारण उसे धर्मक्षेत्र या पुण्यक्षेत्र या पुण्यक्षेत्र कहा जाता है।
प्रश्न – धृतराष्ट्र ने ‘मामकाः’ पदका प्रयोग किनके लिया किया है और ‘पाण्डवाः’ का किनके लिये ? और ‘युयुत्सवः’ विशेषण लगाकर जो ‘किम् अकुर्वत’ कहा है,
उसका क्या तात्पर्य हैं?
उत्तर – ‘ मामकाः’ पदका प्रयोग धृतराष्ट्र ने निज पक्ष के समस्त योध्दोओं सहित अपने दुर्योधनादि एक सौ एक पुत्रों के लिये किया है और ‘पाण्डवाः’ पदका युधिष्ठिर – पक्ष के सब योध्दाओं
सहित युधिष्ठिरादि पाँचों भाइयों के लिये। ‘समवेताः ’ और ‘युयुत्सवः’ विशेषण देकर और ‘किम् अकुर्वत’ कहकर धृतराष्ट्र ने गत दस दिनों के भीषण युध्द का पुरा विवरण जानना चाहा है कि युध्द के लिये एकत्रित इन सब लोगों ने युध्द का प्रारम्भ कैसे लिये एकत्रित इन सब लोगों ने युध्द का प्रारम्भ कैसे किया ? कौन किससे कैसे भिड़े ? और किसके द्वारा कौन, किस प्रकार और कब मारे गये? आदि।
भीष्मपितामह का गिरना
भीष्मपितामह के गिरने तक भीषण युध्द का समाचार धृतराष्ट्र सुन ही चुके है, इसलिये उनके प्रश्न का यह तात्पर्य नहीं हो सकता कि उन्हें अभी युध्द की कुछ भी खबर नहीं है और वे यह जाना चाहते हैं कि क्या धर्मक्षेत्र के प्रभाव से मेरे पुत्रों की बुध्दि सुधर गयी और उन्होने पाण्डवों का स्वत्व देकर युध्द नहीं किया?
अथवा क्या धर्मराज युधिष्ठिर ही धर्मक्षेत्र के प्रभाव से प्रभावित होकर युध्द से निवृत्त हो गये? या अब तक दोनों सेनाएँ खड़ी ही हैं, युध्द हुआ ही नहीं औक यदि हुआ तो उसका क्या परिणाम हुआ? इत्यादि।
सम्बन्ध – धृतराष्ट्र के पूछने पर संजय कहते है -सञ्जय उवाच
दृष्टवा तु पाण्डवानीकं व्यूढ़ं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसग्डम्य राजा वचनमब्रवीत् ।। 2।।
दृष्टवा, तु, पाण्डवानीकम्, व्यूढम्, दुर्योधनः, तदा,
आचार्यम् , उपसग्ड़म्य, राजा, वचनम्, अब्रवीत्।।2।।
प्रश्न – द्रुर्योधन को ‘राजा’ कहने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर – संजय के द्वारा दुर्योधन को राजा कहे जाने में कई भाव हो सकते हैं-
( क ) दुर्योधन बड़े वीर और राजनीतिज्ञ थे तथा शासन का समस्त कार्य दुर्योधन ही करते थे।
(ख) संत सभी को आदर दिया करते हैं और संजय संत – स्वभाव के थे।
(ग) पुत्र के प्रति आदर सूचक विशेषण का प्रयोग सुकर धृतराष्ट्र को प्रसन्नता होगी।
प्रश्न – व्यूह रचनायुक्त पाण्डव – सेना को दोखकर दुर्योधन आचार्य द्रोण के पास गये, इसका क्या भाव है?
उत्तर – भाव यह है कि पाण्डव – सेना की व्यूह रचना इतने विचित्र ढ़ंग से की गयी थी कि उसको देखकर दुर्योधन चकित हो गये और अधीर होकर स्वयं उसकी सूचना देने के लिये द्रोणाचार्य ते पास दौड़े गये। उन्हों ने सोचा कि पाण्डव – सेना की व्यूह रचना देख – सुनकर धनुर्वेद के महान् आचार्य गुरू द्रोण उनकी अपेक्षा अपनी सेना की और भी विचित्र रूप से व्यूह रचना करने के लिये पितामह को परामर्श देंगे।
प्रश्न – दुर्योधन राजा होकर स्वयं सेनापति के पास क्यों गये ? उन्ही को अपने पास बुलाकर सब बातें क्यो नही समझा दीं ?
उत्तर – यद्यपि पितामह भीष्म प्रधान सेनापति थे, परंतु कौरव – सेना में गुरू द्रोणाचार्य का स्थान भी बहुत उच्च और बड़े ही उत्तरदायित्व का था।
सेना में जिन प्रमुख योध्दाओें की जहाँ नियुक्ति होती है, यदि वे वहाँ से हट जाते हैं तो सैनिक – व्यवस्था में बड़ी गड़बड़ी मच जाती हैं ।
इसलिये द्रोणाचार्य को अपने स्थान से न हटाकर दुर्योधन ने ही उनके पास जाना उचित समझा । इसके अतिरिक्त द्रोणाचार्य वयोवृध्द और ज्ञानवध्द होने के साथ ही गुरू होने के कारण आदर के पात्र थे तथा दुर्योधन को उनसे अपना स्वार्थ सिध्द करना था, इसलिये भी उन्हें सम्मान देकर उनका प्रियपात्र बनना उन्हें अभीष्ट था।
पारमार्थिक दृष्टि से तो सबसे नम्रता पूर्वक सम्मान व्यवहार करना कर्तव्य है ही, राजनीति में भी बुध्दिमान् पुरूष अपना काम निकालने के लिये दूसरों का आदर किया करते है। इन सभी दृष्टियों से उनका वहाँ जाना उचित ही था ।
सम्बन्ध – द्रोणाचार्य के पास जाकर दुर्योधन ने जो कुछ कहा, अब उसे बतलाते है –
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम्।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ।। 3।
प्रश्न – धृष्टद्युम्न द्रुपद का पुत्र है, आपका शिष्य है और बुध्दिमान् है – दुर्योधन ने ऐसा किस अभिप्राय से कहा ?
उत्तर – दुर्योधन बड़े चतुर कूटनीतिज्ञ थे। धृष्टद्युम्न के प्रति प्रतिहिंसा तथा पाण्डवों के प्रति द्रोणाचार्य की बुरी भावना उत्पन्न करके उन्हें विशेष उत्तेजत करने के लिये दुर्योधनने धृष्टद्युम्न को द्रुपदपुत्र और ‘आपका बुध्दिमान् शिष्य’ कहा । इन शब्दों के द्वारा वहा उन्हें इस प्राकर समझा रहे हैं कि देखिये , द्रुपद ने आप के साथ पहले बुरा बर्ताव किया था और फिर उसने आपका वध करने के उद्देश्य से ही यज्ञ करके धृष्टद्युम्न को पुत्र रूप से प्राप्त किया था।
धृष्टद्युम्न इतना कूटनीतिज्ञ है और आप इतने धृष्टद्युम्न इतना कूटनीतिज्ञ है और आप इतने सरल हैं कि आप को मारने के लिये पैदा होकर भी उसने आप के ही द्वारा धनुर्वेद की शिक्षा प्राप्त कर ली । फिर इस समय भी उसकी बुध्दिमानी देखिये कि उसने आप लोगों को छक्काने के लिये कैसी सुन्दर व्यूहरचना की है। ऐसे पुरूष को पाण्डवों ने अपना प्रधान सेनापति बनाया है। अब आप ही विचारिये कि आपका क्या कर्तव्य है।
प्रश्न – कौरव – सेना ग्यारह अक्षौहिणी थी और पाण्डव -सेना केवल सात ही अक्षौहिणी थी, फिर दुर्योधन ने उसको बड़ी भारी ( महती ) क्यों कहा और उसे देखने के लिये आचार्य से क्यों अनुरोध किया ?
उत्तर – संख्या में कम होनेपर भी वज्रव्यूह के कारण पाण्डव – सेना बहुत बड़ी मालूम होती थी, दूसरी यह बात भी है कि संख्या में अपेक्षाकृत स्वल्प होनेपर भी जिसमें पूर्ण सुव्यवस्था होती है। वह सेना विशेष शक्तिशालिनी समझी जाती है। इसीलिये दुर्योधन कह रहे हैं कि आप इस व्यूहाकार खड़ी की हुई सुव्यवस्थित महती सेना को देखिये और ऐसा उपाय सोचिये जिससे हम लोग विजयी हों ।
सम्बन्ध – पाण्डव – सेना की व्यूहरचना दिखला कर अब दुर्योधन तीन श्लोकों द्वारा पाण्डव – सेना के प्रमुख महारथियों के नाम बतालाते है।-
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ।।4।।
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्।
पुरूजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुड्ग्डवा।।5।।
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ।।6।।
प्रश्न – ‘अत्र’ पदका यहाँ किस अर्थ में प्रयोग हुआ है ?
उत्तर – ‘अत्र’ पद यहाँ पाण्डव – सेना के अर्थ में प्रयुक्त है।
प्रश्न – ‘यधि’ पदका अन्वय ‘अन्न’ के साथ न करके ‘भीमार्जुनसमाः’ के साथ क्यों किया गया ?
उत्तर – ‘युधि’ पद यहाँ ‘अन्न’ का विशेष्य़ नहीं बन सकता, क्योंकि उस समय युध्द आरम्भ ही नही हुआ था। इसके अतिरिक्त उसके पहले पाण्डव – सेना का वर्णन होने के कारण ‘अन्न’ पद स्वभाव से ही उसका वाचक हो जाता हैं, इसीलिये उसके साथ किसी विशेष्य की आवश्यकता भी नहीं है। ‘भीमार्जुनसमाः’ के साथ ‘युधि’ पदका अन्वय करके यह भाव दिखलाया है कि यहाँ जिन महारथियों के नाम लिये गये हैं, वे पराक्रम और युध्दविद्या में भीम और अर्जुन की ही समता रखते हैं।
प्रश्न – युयुधान, विराट,द्रुपद, धृष्टकेतु,चेकितान, काशिराज, पुरूजित्, कुन्तिभोज, शैब्ज, युधामन्यु और उत्तमौजा कौन थे?
उत्तर – अर्जुन के शिष्य सात्यकिका ही दूसरा नाम युयुधान था ये यादववंशी राजा शिनिके पौत्र थे । ये भगवान् श्री कृष्ण के परम अनुगत थे और बड़े ही बलवान् एवं अतिरथी थे।
इस पोस्ट में इतना ही आने वाले पोस्ट में इसके आगे की जानकारी प्रदान की जायेगी।